अर्थव्यवस्था नीति के विपरीत, प्रधानमंत्री मोदी ने विदेशी नीति में नेतृत्व किया है, रिश्तों को अभिनव तरीके से आगे बढ़ाने की कोशिश करके जिससे भारत के बारे में लम्बे समय से कायम धारणाओं को बदला जा सकता है।
अपने कार्यकाल के शुरुआत से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने, कदाचित, अर्थव्यवस्था नीति को अपने प्राकृतिक सहज ज्ञान पर भरोसा करने के विपरीत तथाकथित “विशेषज्ञों” पर छोड़ दिया और इसका नतीजा स्पष्ट है। इन तथाकथित विशेषज्ञों ने अर्थव्यवस्था को एक के बाद एक झटके दिए हैं, जिनमें नवीनतम है रिजर्व बैंक द्वारा 6 जून को किया गया अबोध्य ब्याज दर वृद्धि। कहीं आरबीआई गवर्नरों, जिनमें पूर्व रेड्डी, सुब्बा राव और राजन की तिकड़ी भी शामिल है, ने सदैव प्रशंसा के लिए पश्चिम की ओर देखा है और दंडात्मक दरें लागू की हैं जिससे विकास (रोज़गार तथा आय) कम हो जाता हैं एक ऐसी अर्थव्यवस्था में जहाँ 400 मिलियन आबादी निर्वाह रेखा के नीचे है और कई लोग भुखमरी से जूझ रहे हैं। लंदन, फ्रैंकफर्ट एवँ वॉशिंग्टन के केंद्रीय बैंक अधिकारी एवँ निधि प्रबंधकों ने स्वयं दरें नकारात्मक स्तर तक कम की हैं परंतु भारत में दरों की वृद्धी को बढ़ावा देते हैं। इनका उद्देश्य है रुपये के मालिकों को दरिद्रता की ओर धकेलना और जिनके पास डॉलर्स, पाउंड्स और यूरो हैं उन्हें (जिनमें वे भी शामिल हैं जिन्होंने गलत तरीके से पैसे अर्जित किए है और विदेशी बैंकों में जमा कर रखा है) स्वामित्व प्रदान करना ताकि वे स्थानीय मालिकों से इक्विटी और अन्य संपत्ति सस्ते में हासिल कर सके।
अपेक्षा थी कि ऐसे पैंतरेबाज़ संस्थानों की मदद करने के विपरीत भारत पूर्व एवं पश्चिम एशिया के उन देशों का साथ देगा जो अपने स्वयं की मुद्रा का उपयोग करना चाहते हैं।
आरबीआई की नवीनतम कर वृद्धी से रुपये का मूल्य कम हो गया है, जिससे केवल वे खुश होंगे जिन्होंने विदेशों में पैसे जमा किए है। यह लेखक इस समय चीन में है, जिसकी मुद्रा भारतीय रुपये से दस गुना मूल्यवान है और अपेक्षा है कि यह 15 गुना तक बढ़ सकता है। कुछ समय पहले रुपये और ताइवान डॉलर का मूल्य एक ही था। आज, रुपया ताइवान डॉलर के मुकाबले आधा है और गिर रहा है। अपेक्षा थी कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री कार्यकाल में रुपया अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 30 रुपया होगा, बजाय इसके कि सबसे कम 70 रुपया प्रति अमेरिकी डॉलर जो जल्द ही होने वाला है। उनके लंदन और न्यू यॉर्क मित्रों के साथ साथ आरबीआई कर्मचारी भी इस परिणाम से प्रसन्न हो रहे होंगे। भारत के मुख्य सत्ता बाजार के विपरीत ये वॉल स्ट्रीट का बचाव करना चाहते हैं, साथ ही उन एजेंसियों की भी रक्षा करने की कोशिश कर रहे हैं जिन्होंने 2008 में बाजार की गिरावट को नजरअंदाज कर दिया था। अपेक्षा थी कि ऐसे पैंतरेबाज़ संस्थानों की मदद करने के विपरीत भारत पूर्व एवं पश्चिम एशिया के उन देशों का साथ देगा जो अपने स्वयं की मुद्रा का उपयोग करना चाहते हैं नाकी उन देशों का जिससे निवेशकों को एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में 300 ट्रीलीयन यू. स.डी का घाटा दोषपूर्ण सरकारी नीतियों और लालची धनी लोगों की वजह से हुआ है।
अर्थव्यवस्था नीति के विपरीत, प्रधानमंत्री मोदी ने विदेशी नीति में नेतृत्व किया है, रिश्तों को अभिनव तरीके से आगे बढ़ाने की कोशिश करके जिससे भारत के बारे में लम्बे समय से कायम धारणाओं को बदला जा सकता है। उनका सिंगापुर भाषण शैंगरी-ला संवाद के सर्वोत्तम भाषणों में से एक था। मोदी ने इंडो – पॅसिफिक का सही वर्णन विस्तृत रूप से किया, यह कहते हुए कि वह अफ्रीका के पूर्व और दक्षिण समुद्रतटों से लेकर अमेरिका के पश्चिमी तटों तक फैला हुआ है। उन लोगों को मूक रूप से फटकारते हुए जिन्होंने चीन के खिलाफ इस संकल्पना का भू-राजनैतिक हथियार के रूप में उपयोग किया, मोदी ने चेतावनी दी कि इंडो – पॅसिफिक को सम्मिलित होना चाहिए, ना की अनन्य, उसके समुद्रों को स्वतंत्र एवँ खुला होना चाहिए और यह संकल्पना किसी देश(चीन) के विरुद्ध नहीं थी। साथ ही उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि आकाश में उड़ने की स्वतंत्रता होनी चाहिए और सेना बल का प्रयोग अमान्य था। पूर्व में, मोदी एक संतुलित विदेश नीति रखने की उनकी इच्छा का प्रदर्शन करते हुए शी जिनपिंग से वार्तालाप के लिए वूहान गए और तत्पश्चात व्लादिमीर पुतिन से अनौपचारिक बातचीत करने। यह उन दोनों के लिए संकेत था कि दिल्ली और वॉशिंग्टन के बीच बढ़ती मित्रता, सैन्य क्षेत्र के समेत, का पुराने मित्रों के संबंधों पर असर नहीं पड़ेगा। इस गुट में ईरान भी शामिल हैं जिसके साथ भारत कई सारी परियोजनाओं को मैत्रीपूर्ण वातावरण में संपन्न कर रहा है इसके बावजूद कि प्रधानमंत्री मोदी और इस्राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतनयाहू के संबंध अच्छे हैं और भारत एवँ इस्राइल के बीच नजदीकियां हैं। भले ही मणि शंकर अय्यर (जो इस लेखक के बुद्धिमान और परिहास युक्त मित्रों में से एक है) मोदी को बाज़ कह रहे हैं, वास्तविकता यह है कि अगस्त में, 1947 के बाद पहली बार यूएन मिशन के बाहर, भारत और पाकिस्तान की सेना रूस में एससीओ के ध्वज तले संयुक्त प्रदर्शन करेंगे। मोदी के वार्तालाप, केवल यूएस के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ ही नहीं बल्कि यूके के प्रधानमंत्री टेरेसा मे, जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल और फ़्रांस के प्रधानमंत्री इमेन्यूअल मेक्रान के साथ भी, यह प्रदर्शित करता है कि प्रधानमंत्री अन्य लोकशाही राष्ट्रों के साथ संबंध बनाए रखने को कितना महत्व देते हैं, उनके नाजुक संतुलन बनाए रखने की विदेशी नीति का एक और पहलू जिसे उन्होंने स्वयं तैयार किया है।
जहाँ तक चीन और अमेरिका का प्रश्न है, मोदी को उनके बीच के संबंधों को संतुलित करना होगा, परंतु बहुत ही अलग तरीके से। चीन के साथ, आर्थिक और व्यावसायिक संबंधों की मात्रा को बढ़ाने की अवश्यकता है, ताकि दोनों राष्ट्र मिलकर 300 मिलियन यूएस डॉलर का व्यापार करे। चीन से निवेश प्राप्त करने से भारत से बाहर जानेवाला धन कम होगा क्योंकि भारत में आनेवाली चीनी निर्यात में वृद्धि होगी ना की उल्टी दिशा में, साथ ही भारत में व्यापार करने वाले चीनी बैंकों को भी काफी अवसर प्राप्त होंगे। अमेरिका के साथ, उचित होगा कि हम वॉशिंग्टन और दिल्ली के बीच रक्षा एवँ सुरक्षा संबंध को आगे बढ़ाए। इसे आगे बढ़ाने के लिए हमें दो अन्य आधार समझौते पर हस्ताक्षर करने होंगे जैसे हमने सैन्य-तंत्र पर किया है। एफ – 16 समनुक्रम को भारत में स्थानांतरित करने से, साथ ही एफ-18 और एफ – 36 हवाईजहाज की आपूर्ति, भारत की घरेलू विमानन विनिर्माण सुविधाएं कम से कम ब्राज़ील के स्तर पर पहुंच जाएगी, यदि उससे आगे नहीं तो भी। भ्रमण के एक कठोर अनुसूची के चलते, मोदी फिर एक बार भारत को वैश्विक भूराजनीति में मुख्य शक्ति के रूप में स्थापित करने में सफल रहे हैं।
Note:
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