पिछले सात वर्षों से, स्वामी की याचिका को खींचा जा रहा था!
सर्वोच्च न्यायालय ने गुरुवार को कहा कि वह 26 अप्रैल को भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका पर सुनवाई करेगा, जिसमें रामसेतु को राष्ट्रीय धरोहर स्मारक घोषित करने के लिए केंद्र को दिशा-निर्देश देने की मांग की गयी है। पिछले सात वर्षों से, स्वामी की याचिका को खींचा जा रहा था और कई बार उन्होंने निर्णय नहीं लेने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना की। 2008 में कांग्रेस-शासित यूपीए सरकार को रामसेतु तोड़ने से रोकने के बाद, स्वामी रामसेतु को राष्ट्रीय धरोहर स्मारक घोषित करने की मांग कर रहे थे।
मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे और जस्टिस एएस बोपन्ना और वी रामासुब्रमण्यन की पीठ से स्वामी ने आग्रह किया कि याचिका पर तत्काल सुनवाई की जरूरत है। सीजेआई, जो 23 अप्रैल को सेवानिवृत होने वाले हैं, ने कहा, “अगले सीजेआई (न्यायमूर्ति एनवी रमना) को इस मुद्दे से निपटने दें। मेरे पास इतना समय नहीं है। इस मुद्दे के लिए समय चाहिए और मेरे पास यह नहीं है।” पीठ ने मामले को 26 अप्रैल को सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया जब भाजपा नेता ने कहा कि यह मुद्दा काफी समय से लंबित है। इससे पहले 23 जनवरी, 2020 को शीर्ष अदालत ने कहा था कि वह रामसेतु पर स्वामी की राष्ट्रीय धरोहर स्मारक के रूप में मानने की याचिका के तीन महीने बाद विचार करेगी।
शीर्ष अदालत ने 13 नवंबर, 2019 को केंद्र को रामसेतु पर अपना रुख स्पष्ट करने के लिए छह सप्ताह का समय दिया था। इसने स्वामी को केंद्र द्वारा प्रतिक्रिया नहीं दाखिल करने की स्थिति में अदालत का दरवाजा खटखटाने की भी स्वतंत्रता दी थी।
स्वामी ने कहा कि उन्होंने पहले ही मुकदमे का पहला दौर जीत लिया है जिसमें केंद्र ने रामसेतु के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया है। उन्होंने आगे कहा कि सेतु को राष्ट्रीय धरोहर घोषित करने की उनकी मांग पर विचार करने के लिए संबंधित केंद्रीय मंत्री ने 2017 में एक बैठक बुलाई थी, लेकिन बाद में ऐसा कुछ नहीं हुआ। शीर्ष अदालत ने इससे पहले कई मामलों के लंबित होने का उल्लेख किया और स्वामी से तीन महीने के बाद उनकी याचिका का उल्लेख करने को कहा।
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भाजपा नेता ने पहले यूपीए-1 सरकार द्वारा शुरू किए गए विवादास्पद सेतुसमुद्रम शिप चैनल प्रोजेक्ट के खिलाफ अपनी जनहित याचिका में रामसेतु को राष्ट्रीय स्मारक घोषित करने का मुद्दा उठाया था। मामला शीर्ष अदालत में पहुंचा, जिसने 2007 में रामसेतु परियोजना के लिए काम पर रोक लगा दी थी। केंद्र ने बाद में कहा था कि इसने परियोजना के “सामाजिक-आर्थिक नुकसान” पर विचार किया और रामसेतु को नुकसान पहुंचाए बिना शिपिंग चैनल परियोजना के लिए एक अन्य मार्ग तलाशने के लिए तैयार था।
मंत्रालय द्वारा दाखिल हलफनामे में कहा गया कि “भारत सरकार सेतुसमुद्रम शिप चैनल परियोजना के पहले संरेखण का विकल्प तलाशने का इरादा रखती है, और वो भी एडम्स ब्रिज/ राम सेतु को प्रभावित किये बिना। कोर्ट ने तब सरकार से नए सिरे से हलफनामा दाखिल करने को कहा था।
सेतुसमुद्रम शिपिंग चैनल परियोजना ने कुछ राजनीतिक दलों, पर्यावरणविदों और कुछ हिंदू धार्मिक समूहों के विरोध का सामना किया था। इस परियोजना के तहत, मन्नार (Mannar) को पाक जलसंधि (Palk Strait) से जोड़ने, चूना पत्थर के शिलाओं को व्यापक रूप से हटाने और नष्ट करने के लिए एक 83 किलोमीटर लंबे गहरे जल चैनल का निर्माण किया जाना था। रामसेतु को तोड़कर सेतु समुद्र शिपिंग चैनल परियोजना को पहले वाजपेयी सरकार द्वारा मंजूरी दी गई थी, जो डीएमके (द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम) के समर्थन के साथ सत्ता में थी। परियोजना का उद्घाटन 2005 में यूपीए सरकार द्वारा किया गया था और 2007 में शीर्ष अदालत ने सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका पर रामसेतु को तोड़ने पर रोक लगा दी थी। 2008 में शीर्ष अदालत द्वारा रामसेतु के संरक्षण के आदेश के बाद परियोजना को छोड़ दिया गया था। शीर्ष अदालत ने 13 नवंबर, 2019 को केंद्र को रामसेतु पर अपना रुख स्पष्ट करने के लिए छह सप्ताह का समय दिया था। इसने स्वामी को केंद्र द्वारा प्रतिक्रिया नहीं दाखिल करने की स्थिति में अदालत का दरवाजा खटखटाने की भी स्वतंत्रता दी थी।
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