चुनिंदा और यहां तक ​​कि शरारती, सोज़ का गलत इतिहास का टुकड़ा

पटेल ने यह नहीं कहा कि वे कश्मीर को पाकिस्तान को देने के पक्ष में थे; इसके विपरीत, उन्होंने इस मामले को शासक पर छोड़ दिया- यानी महाराजा हरि सिंह पर।

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चुनिंदा और यहां तक ​​कि शरारती, सोज़ का गलत इतिहास का टुकड़ा
चुनिंदा और यहां तक ​​कि शरारती, सोज़ का गलत इतिहास का टुकड़ा

सैफुद्दीन सोज ना ही नेहरू के गलतियों पर पर्दा डाला होता, जिसकी कीमत देश अभी तक चुका रहा है

सैफुद्दीन सोज ने अपनी क्षमता से अधिक कार्य करने का प्रयास किया है। यह कहने के बाद कि सरदार वल्लभभाई पटेल ने पाकिस्तान को कश्मीर देने का पक्ष लिया और उनके पास उनके दावे के समर्थन करने के लिए दस्तावेजी सबूत थे, अब वह स्पष्टीकरण जारी करने में व्यस्त हैं। हक्का बक्का कर दिए गए कांग्रेस ने अवमानना ​​के साथ उनकी राय खारिज कर दी है और सोज को खुद का बचाव करने के लिए छोड़ दिया है।

सोज को यह पता होना चाहिए कि सरदार 1947 के आखिरी महीनों से कश्मीर पर सक्रिय हो गए थे।

चलिए उस सामग्री की बात करते हैं जिससे सोज अवगत थे, लेकिन उन्हें जिस तरीके में है, उसी तरीके से पेश नहीं करना चाहते थे। इस मुद्दे का विस्तृत विवरण पटेल : ए लाइफ नामक राजमोहन गांधी द्वारा लिखित पुस्तक में उपलब्ध है। लेखक पुस्तक के दिए गए स्रोत से एक उद्धरण प्रस्तुत करते हैं : पटेल शासक पर “(कश्मीर पाकिस्तान में प्रवेश करने का) निर्णय छोड़ने” के लिए संतुष्ट थे। सरदार ने यह नहीं कहा कि वे कश्मीर को पाकिस्तान को देने के पक्ष में थे; इसके विपरीत, उन्होंने इस मामले को शासक पर छोड़ दिया- यानी महाराजा हरि सिंह पर। जाहिर है, कश्मीर के अलावा भी उस समय (1947) पटेल के दिमाग में कई अधिक बातें थीं। वीपी मेनन, जिन्होंने पुस्तक, द ट्रांसफर ऑफ पावर को लिखा है, को यह कहते हुए उद्धृत किया गया है कि अक्टूबर 1947 से पहले की अवधि में, “अगर सच कहा जाए, तो मेरे पास केवल कश्मीर के बारे में सोचने का कोई समय नहीं था”, तो उस समय के संदर्भ को दर्शाता है।

गांधी आगे लिखते हैं कि महाराजा “हिंदू होने के नाते, पाकिस्तान से जुड़ने के लिए अनिच्छुक थे, हालांकि वह “भारत में शामिल होने के लिए समान रूप से अनिच्छुक” थे, क्योंकि उन्हें डर था कि शेख अब्दुल्ला को , जिन्हें जवाहरलाल नेहरू ने पसंद किया था, उन्हें बेदखल करने की इजाजत दी जाएगी। नेहरू समर्थकों द्वारा लगभग पूजित महान नायक, लॉर्ड माउंटबेटन ने इस दौरान महाराजा से कहा था कि अगर कश्मीर पाकिस्तान में शामिल हो जाए, तो इसे भारत सरकार द्वारा अमित्रवत नहीं माना जाएगा।

इस प्रकार, जबकि पटेल उस समय कुछ हद तक इस मामले पर द्विपक्षीय थे, माउंटबेटन यह जानकारी दे रहे थे कि वह कश्मीर पाकिस्तान के पास  जाने से असहमत नहीं होंगे – बाद में वह नेहरू को संयुक्त राष्ट्र के पास मामला ले जाने की गलती करने के लिए मनाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। नेहरू अपनी ओर से कश्मीर को भारत में बनाए रखने के लिए उत्सुक थे, लेकिन अब्दुल्ला के नेतृत्व में, जिससे ये मुद्दा और पेचीदा हो गया और हरि सिंह को पाकिस्तान की तरफ या भारत और पाकिस्तान को समानांतर की ओर धकेल दिया।

आश्चर्यजनक रूप से, सोज़ सरदार की चतुरता को समझ नहीं पाये। पटेल ने कहा कि कश्मीर में एक जनमत संग्रह  होगा बशर्ते हैदराबाद में भी उसी तरह से हो। एमए जिन्ना को एहसास हुआ कि यह एक नामुमकिन बात थी क्योंकि हैदराबाद के लोग – एक हिंदू बहुमत वाला क्षेत्र – पाकिस्तान को कभी स्वीकार नहीं करेंगे । अपने गजब की चाल से पटेल ने जिन्ना की कश्मीर में जनमत की मांग को नाकाम करने के इच्छुक थे। दुर्भाग्यवश, मामला संयुक्त राष्ट्र पहुंचा, लेकिन भारत के लिए सौभाग्य से, पाकिस्तान ने गड़बड़ की और घाटी में कभी भी जनमत नहीं हुआ। इस बीच, पटेल ने हैदराबाद का भारतीय संघ में विलय और निजाम की अपमानजनक वापसी का निरीक्षण किया। पटेल के पास संतुष्ट होने का कारण था। शासक के आत्मसमर्पण के बाद और जब रियासत राज्य आधिकारिक तौर पर भारत का हिस्सा बनने वाला था, जूनागढ़ में एक बैठक में उन्होंने कहा: “पाकिस्तान ने जूनागढ़ और कश्मीर को संभजन करने का प्रयास किया। जब हमने लोकतांत्रिक तरीके से निपटारे का सवाल उठाया, तो उन्होंने (पाकिस्तान) ने तुरंत हमें बताया कि वे इस बात पर विचार करेंगे अगर हमने कश्मीर पर यह नीति लागू की। हमारा जवाब यह था कि अगर वे हैदराबाद से सहमत हो तो हम कश्मीर से सहमत होंगे।

सोज को यह पता होना चाहिए कि सरदार 1947 के आखिरी महीनों से कश्मीर पर सक्रिय हो गए थे। राजमोहन गांधी के अनुसार, जब पाकिस्तान ने जूनागढ़ (एक हिंदू बहुमत वाले क्षेत्र) पर बेईमानी से व्यवहार करना शुरू कर दिया, तो पटेल ने फैसला किया कि वह मुसलमानों के बहुमत वाले कश्मीर में ज्यादा दिलचस्पी लेंगे: “उस दिन से, जूनागढ़ और कश्मीर, पंजा और रानी, ​​उनकी समकालिक व्यवसाय बन गये। वह एक को जीत लेंगे और दूसरे की रक्षा करेंगे।”

महाराज को नेहरू का पत्र इस परिवर्तन का संकेत बना जिसमें ये निर्देश दिया गया कि शेख अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर का प्रधान मंत्री होना चाहिए जबकि महाराजा संवैधानिक प्रमुख हो सकते हैं।

पटेल की सक्रियता लेखक द्वारा आगे प्रकट की गई है। “पटेल की पहल पर, विमानों को दिल्ली-श्रीनगर मार्ग पर और वायरलेस और टेलीग्राफ उपकरण को अमृतसर-जम्मू लिंक के दोनों सिरों तक ले जाया गया। पठानकोट और जम्मू के बीच टेलीफोन और टेलीग्राफ लाइनें रखी गईं। “शासक को आदेश को स्वीकार करने और सहयोग करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। उस समय, पटेल कश्मीर से संबंधित मामलों में सक्रिय थे; जल्द ही नेहरू औपचारिक रूप से कश्मीर का प्रभारी बनेंगे, पटेल को इस विषय पर कोई अधिकार नहीं देंगे -परंतु यह सब इस मामले पर सरदार को अपनी मुंहफट स्पष्टवादी राय देने से नहीं रोक पाये।

पाकिस्तानी तत्वों के कश्मीर पर हमला करने के पश्चात, महाराजा को नेहरू के निवास पर उच्च स्तरीय बैठक में बंद कर दिया गया था, और उस समय के प्रधान मंत्री, पटेल, वीपी मेनन, शेख अब्दुल्ला, जम्मू-कश्मीर के प्रधान और अन्य शामिल थे। प्रीमियर ने बेहद निराशाजनक घोषणा की कि अगर नई दिल्ली उनकी सहायता करने में नाकाम रही तो वह पाकिस्तान के नियमों को स्वीकार करेंगे, और चलने के लिए तैयार हो गये। पटेल ने उन्हें रोक दिया और कहा: “निश्चित रूप से महाजन, आप पाकिस्तान नहीं जा रहे हैं।” सरदार के प्रत्यक्ष हस्तक्षेप ने भारत को बचाया क्योंकि नेहरू को कार्यवाही के दौरान अपनी अनिश्चितता को त्यागने के लिए मजबूर होना पड़ा था। भारतीय सैनिक जल्द ही अग्रसर हुए और वे पाकिस्तान प्रायोजित आक्रमणकारियों को हराने वाले थे।

जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, नेहरू ने कश्मीर का प्रभार संभाला, जबकि पटेल देश के बाकी हिस्सों के लिए राज्य मंत्री बने रहे। महाराज को नेहरू का पत्र इस परिवर्तन का संकेत बना जिसमें ये निर्देश दिया गया कि शेख अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर का प्रधान मंत्री होना चाहिए जबकि महाराजा संवैधानिक प्रमुख हो सकते हैं। पटेल ऐसी अनुमति कभी भी नहीं देते यदि वह कश्मीर नीति को नियंत्रित करते। उन्हें शेख पर गहरा संदेह था – एक ऐसा संदेह जो बाद में सही साबित हुआ। इतना ही नहीं, नेहरू ने गोपालस्वामी अयंगार को उनके मुख्य सहायक के रूप में लगाया, जबकि पटेल को स्पष्ट रूप से अंधेरे में रखा गया। इस प्रकरण के परिणामस्वरूप नेहरू और पटेल के बीच संघर्ष हुआ, दोनों ने उनके बीच आदान-प्रदान पत्रों में सरकार छोड़ने की इच्छा व्यक्त की। महात्मा गांधी के हस्तक्षेप से संधि हुई।

यदि सैफुद्दीन सोज विषयनिष्ठ होता, तो उसने पटेल को इस मुद्दे पर नहीं खींचा होता एवँ उन्हें खराब प्रकाश में प्रस्तुत नहीं किया होता और ना ही नेहरू के गलतियों पर पर्दा डाला होता, जिसकी कीमत देश अभी तक चुका रहा है ।

 

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