कांग्रेस में दरबारियों ने ‘असंतुष्टों’ को फटकार लगाई!
बिहार चुनावों में और मध्य प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक एवं उत्तर प्रदेश में हुए उपचुनावों में काँग्रेस पार्टी का दयनीय प्रदर्शन देखने को मिला और पार्टी के कम से कम एक वर्ग के लिए एक बूस्टर शॉट (शक्तिवर्धक) रहा। यह वर्ग है तथाकथित जी-23, जिसमें पार्टी के वरिष्ठ नेता शामिल हैं, जिन्होंने कुछ महीने पहले पार्टी के कामकाज में सुधार लाने और अधिक प्रभावी नेतृत्व की मांग करते हुए आलाकमान को पत्र लिखा था। जी-23 के ‘असंतुष्ट जन’ अब अधिक मुखर हो गए हैं, लेकिन दरबारी वफादारों ने मांग को खारिज कर दिया और जी-23 जनों की मंशा पर सवाल उठाये है।
गुलाम नबी आज़ाद और कपिल सिब्बल ने पहले ही अपने विचार रख दिये हैं और ऐसा ही अन्य लोग आने वाले समय में करेंगे। यहां थोड़ी विडंबना है। एक टेलीविजन साक्षात्कार में सिब्बल ने कहा कि वह एक धारणा बनाने के लिए सरकार और “कुलीन वर्गों” के बीच एक सहयोग के रूप में और सोशल मीडिया सहित मीडिया की मदद से धारणा को आगे जन-जन तक बढ़ाने में विश्वास करते हैं। आज़ाद ने एक “फाइव-स्टार कल्चर” की बात की, जिसने पार्टी के संगठन को ध्वस्त कर दिया।
उन्होंने कहा कि कांग्रेस नेता हिमाचल प्रदेश में “पिकनिक” पर थे, जबकि बिहार में चुनाव प्रचार पूरे जोरों पर था।
लेकिन सिब्बल और आज़ाद दोनों ने ही सावधानी बरतते हुए कांग्रेस के प्रथम परिवार यानी कि गांधी परिवार पर सवाल नहीं उठाये। आज़ाद ने यह आरोप राहुल गांधी के सलाहकारों पर लगाये, यह कहते हुए कि सलाहकार नेतृत्व की त्रुटियों को इंगित करने के अपने कार्य में विफल रहे और खुद को चाटुकारिता तक सीमित कर लिया। दूसरी ओर, सिब्बल ने टिप्पणी की कि पार्टी में कोई नेतृत्व नहीं था क्योंकि नेता ने खुद कहा कि वह नेतृत्व नहीं करना चाहते थे।
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सूक्ष्म अंतर के बावजूद, वफादार दरबारी लोग ‘असंतुष्टों’ पर टूट पड़े, उनमें से एक ने कहा कि टिप्पणियों ने कांग्रेस पार्टी के प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं को आहत किया है और पीड़ा दी है, जबकि दूसरे ने टिप्पणी की कि इस तरह के बयान पार्टी के आंतरिक मंचों पर दिए जाने चाहिए। तीसरे ने दावा किया कि एक पार्टी जो 100 साल से अधिक पुरानी है, अच्छी तरह से जानती है कि असफलताओं को कैसे संभालना है और सही समय पर सुधार होगा।
संकट की जड़ कांग्रेस पार्टी की यह धारणा है कि प्रथम परिवार का प्रभुत्व अपरक्राम्य (नॉन-निगोशियेबल) है। भले ही वह अध्यक्ष पद पर ना हो, राहुल गांधी को मार्गदर्शक बने रहना होगा। समस्या यह है: वह अध्यक्ष के रूप में विफल रहे और वह अध्यक्ष रहे बिना एक नेता के रूप में भी विफल रहे। कुछ जीत को छोड़कर, जो न के बराबर है, पार्टी ने 2014 के बाद से हर चुनाव, राष्ट्रीय स्तर या राज्य स्तर में बहुत ही खराब प्रदर्शन किया है और अभी तक बीते छह वर्षों में नेतृत्व द्वारा संगठनात्मक ढाँचे के पुनर्गठन या एक धारणा जो न केवल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से अलग है, बल्कि मतदाताओं के लिए स्वीकार्य भी है, प्रदान करने की ओर कोई वास्तविक प्रयास नहीं किये गए हैं। अगर यह कांग्रेस के आलाकमान (सोनिया गांधी-राहुल गांधी-प्रियंका वाड्रा) की बहुत बड़ी विफलता नहीं है, तो क्या है?
स्थिति इतनी विकट है कि पार्टी ने अधिकांश सीटों (उपचुनावों में) को खो दिया है, जो उसने नियमित चुनावों में कुछ महीने पहले ही जीती थी और ऐसा कई राज्यों में हुआ है। समस्या को सम्बोधित करने के बजाय, राहुल गांधी काल्पनिक दुश्मनों पर वार करने में अपना समय व्यर्थ गवां रहे हैं, यह कहते हुए कि ये काल्पनिक दुश्मन कॉंग्रेस पार्टी के सबसे बड़े विरोधी हैं। पार्टी यह स्वीकारने को तैयार नहीं कि उसके बुरे प्रदर्शन की वजह से बिहार में महागठबंधन को भारी नुक़सान हुआ। तीन साल पहले, इसने उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा) के साथ इसी तरह के खराब प्रदर्शन के साथ गठबंधन को छति पहुँचाई थी। इसके सहयोगी अनुभव से समझदार हो गए हैं। समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने घोषणा की है कि सपा अब किसी बड़ी पार्टी के साथ नहीं बल्कि छोटे संगठनों के साथ गठबंधन बनाएगी। बिहार में राजद के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी ने राहुल गांधी की धज्जियाँ उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने राज्य में कांग्रेस पार्टी द्वारा चुनाव लड़ी गयीं 70 सीटों का जिक्र करते हुए कहा कि कांग्रेस नेता ने 70 सभाओं को संबोधित भी नहीं किया। इससे भी बदतर, उन्होंने कहा कि कांग्रेस नेता हिमाचल प्रदेश में “पिकनिक” पर थे, जबकि बिहार में चुनाव प्रचार पूरे जोरों पर था।
हर बार जब भी कोई बड़ा चुनाव होता है, तो हम सुनते हैं कि यह कांग्रेस के लिए “करो या मरो” की स्थिति है। लेकिन पार्टी खुद बेपरवाह रहती है। धीरे-धीरे इसका टूटना जारी है। 2021 में कई महत्त्वपूर्ण राज्यों के चुनाव होने हैं और भाजपा पहले ही अपना चुनावी अभियान शुरू कर चुकी है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और पार्टी अध्यक्ष जे पी नड्डा पहले ही चुनावी अभियान में भाग लेने के लिए पश्चिम बंगाल में एक महीने में कम से कम एक यात्रा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इसके अलावा, शाह तमिलनाडु में पहले से ही अतिसक्रिय हैं, इस दक्षिणी राज्य में अपनी पहचान बनाने के लिए गठबंधनों की संभावनाएँ तलाश रहे हैं, क्योंकि अब तक पार्टी के लिए इस राज्य की राजनीतिक राहें मुश्किल साबित हुई हैं। इसके विपरीत, कांग्रेस अभी भी एक गुमराह स्थिति में है, जिसके पास न तो नेतृत्व है और न ही एकजुटता है। यहा इंगित करने के लिए कुछ भी नहीं है कि नए अध्यक्ष का चुनाव करने की प्रक्रिया शुरू की गई है। ना ही राहुल गांधी ने पद पर लौटने की कोई इक्षा दिखाई है।
ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस पार्टी आत्म-विनाश के रास्ते पर आगे बढ़ने के लिए दृढ़ है। कुछ – वरिष्ठ नेताओं का पार्टी से बाहर निकलना, पार्टी के भीतर से हताशा भरी आवाजें, सहभागियों से गंभीर चेतावनी, बार-बार चुनावी हार, कांग्रेस के लिए सब चिकने घड़े पर पानी डालने के समान है।
ध्यान दें:
1. यहां व्यक्त विचार लेखक के हैं और पी गुरुस के विचारों का जरूरी प्रतिनिधित्व या प्रतिबिंबित नहीं करते हैं।
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