मूल रूप से 15 फरवरी, 2016 को द सन्डे गार्डियन में प्रकाशित किया गया था
एक विस्तारित अवधि के लिए कम ईंधन की कीमतों का स्पष्ट प्रक्षेपण अक्सर नहीं होता है और भारत को इस सुनहरे अवसर को पकड़ना चाहिए।
तेल उद्योग के लिए यह बहुत बुरा समय है। कुछ ही महीनों में कच्चे तेल की कीमतों में 70% की गिरावट आई है और इनमें जल्द ही सुधार होते दिखायी नहीं दे रहे हैं। जिन कंपनियों ने पिछले कुछ वर्षों में ऐतिहासिक मुनाफे कमाए थे उनकी कमाई अब कम हो गयी है, जिस वजह से वे अपने दो-तिहाई रिसाव में काम रोक चुके हैं और अन्वेषण एवँ उत्पादन के निवेश को कम कर दिया है। अमेरिकी फेडरल के ब्याज दरों में बढ़ोतरी होने की आशंका से कोई मदद नहीं मिली है क्योंकि बहुत सारी कंपनी दिवालिया हो चुकी हैं और अनुमानित 250,000 तेल कर्मचारियों ने अपनी आजीविका को खो दिया है। कई विश्लेषकों ने हर कंपनी द्वारा बंद हो रहे रिसाव की संख्या से ये अंदाजा लगाने की कोशिश की है कि यह सब कब तक चलेगा। ऐसी गहरी गिरावट के कारण क्या हैं? मेरी राय में कारण एक ही है।
कच्चे तेल की कीमतें तब तक कम रहेंगी जब तक अधिक मांग की पूर्ति नहीं होती और ओपेक समझ जाए कि माँग एवँ आपूर्ति में संतुलन बनाए रखने के लिए उन्हें उत्पादन को कम करना होगा।
कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट का कारण
इसके लिए सबसे आसान जवाब है आपूर्ति एवँ माँग। बहुत समय से, कच्चे तेल विक्रेता देशों की गठबंधन (ओपेक) उत्पादन बढ़ाकर या घटाकर कीमतों को नियंत्रित करने में सफल रहा। अन्य ब्रिक्स देशों सहित जब चीन में विकास तेज़ी से होने लगा, तेल की कीमत भी बढ़ने लगी। जब 2008 में दुनियाभर में आर्थिक संकट आया तब हालात थोड़े सुधरे परंतु इसके सही होने के बाद, भाव फिर से बढ़ गए। कच्चे तेल के ऊँचे दामों, 75$ प्रति बैरल से अधिक, ने इसमें अमेरिका की रुचि बढ़ाई और वह शेल पत्थरों से फ्राकिंग द्वारा कच्चा तेल उत्पादन करने का विकल्प ढूँढ निकाला। जब तक कीमतें $75 से अधिक थी तब तक शेल फ्राकिंग फायदेमंद था और दुनिया का पूंजीवाद गढ़ इसमें पूरी तरह कूद पड़ा।
अमेरिका की तेल उत्पादक के रूप में शीघ्रगामी वृद्धि हुई है। यूनाइटेड स्टेट्स की आंतरिक उत्पति पिछले वर्षों में दुगनी हो गयी है, जिस वजह से तेल आयात कम हो गया है और उन देशों को नए बाजार खोजने की अवश्यकता हो गयी है। सऊदी, नाइजीरियाई एवँ अल्जीरियाई तेल जो पहले यूनाइटेड स्टेट्स में बिकता था अब एशियाई देशों की ओर मुड़ रहा है और उत्पादक अपने दाम कम करने के लिए मजबूर हैं। कैनेडियन एवँ इराकी तेल उत्पादन और निर्यात साल दर साल बढ़ रही हैं। रूसी भी, अपनी आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद, उत्पादन कर रहे हैं। और फिर ईरान ने पश्चिम के साथ परमाणु समझौता किया एवँ कुछ मिलियन बैरल के उत्पादन के साथ बाजार में आने वाला है।
कई ओपेक देशों (एवँ रूस) की वास्तविक समस्या यह है कि तेल ही एक ऐसा उत्पाद है जिसका वे निर्यात कर सकते हैं और इस वजह से वे इसका उत्पादन यदि चाहे तो भी रोक नहीं सकते क्योंकि उनके पास कोई अन्य राजस्व पैदा करने का संसाधन नहीं है। यह सब आपूर्ति पक्ष की तरफ से है।
मांग के पक्ष में, यूरोप एवँ विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था कमजोर हो रही है और अमेरिका में वाहनों पर ऊर्जा कुशल होने का नियम लागू होने के बाद, ईंधन के मांग कम हो गयी है।
अगले 6 महीनों में क्या अपेक्षित है
कच्चे तेल की कीमतें तब तक कम रहेंगी जब तक अधिक मांग की पूर्ति नहीं होती और ओपेक समझ जाए कि माँग एवँ आपूर्ति में संतुलन बनाए रखने के लिए उन्हें उत्पादन को कम करना होगा। ओपेक पर अमेरिका का साया बना रहेगा क्योंकि वह अपने फ्राकिंग क्षमताओं को लगातार बेहतर कर रहा है एवँ इसी वजह से कच्चा तेल बाजार में $75 प्रति बैरल दाम पर अपने तेल को बेच रहा है।
आरबीआई ने कुछ हफ्तों पहले कर दरों में कटौती ना करने का कारण बताते हुए कहा कि भारत में उपभोगता मूल्य सूचकांक थोक मूल्य सूचकांक से 6% दूर है।
भारत में खुदरा वी कच्चा तेल कीमतों का इतिहास
2005 से 2014 के बीच में, कच्चे तेल की कीमतें पेट्रोल पंप पर पेट्रोल की कीमतों से अधिक थी। भुगतान करने वाली जनता की सामर्थ्य को ध्यान में रखते हुए, सरकार ने यह निश्चित किया कि जनता ज्यादातर वही राशि भरे। सरकार यह तर्क कर सकती हैं कि उन्होंने 10 वर्षों तक सामर्थ्य का बोझ उठाया और अब उपभोक्ता की बारी है कि वे बोझ में सहभागी हो ताकि उस धनराशि को अन्य परियोजनाओं के लिए उपयोग किया जा सके। एक और तर्क यह है कि कीमतों को बहुत कम करने से लोग अधिक कार एवँ स्कूटर खरीदेंगे जिससे पूर्वावश्यकता पर दबाव बढ़ जाएगा ! वास्तव में ये सारे दिखावटी कारण है।
यह कई बार सिद्ध हो चुका है कि कोई भी सरकार, चाहे वह पूंजीवादी हो या समाजवादी कभी भी उपलब्ध कोष को अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए सही से इस्तेमाल नहीं करते। विकास के लिए सोविएत का तरीका विलुप्त हो चुका है और भारत अब भी उसी को सभी बीमारियों का रामबाण मानता है। पूरा दृश्य समझने के लिए, अब हम यह बताएंगे कि सरकार समृद्धि के साथ क्या करेगी, क्योंकि 2016 के अंत तक कच्चा तेल की कीमतें कम रहीं।
अच्छी धनराशि को बुरे कामों में लगाना
संभावना है कि इस धनराशि को बीमार सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को पुन:पूँजीकृत करने में लगाया जाएगा, जिसमें बड़े बैंक भी शामिल होंगे। सार्वजनिक इकाईयों के निजीकरण के प्रयत्न विफल हुए हैं। विनिवेश योजना के अंतर्गत स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया (सेल) के 55% शेयरों को सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक और अन्य संस्थानों, जैसे लाइफ इंश्योरेंस कार्पोरेशन ऑफ इंडिया (एलआईसी) द्वारा ही खरीदा गया। ये तो वही बात हुई कि दाएँ हाथ से लेकर बाएँ हाथ को दिया, भले ही चुपके से। क्या कीनेसियन अर्थशास्त्र पैसे के परिसंचरण को विस्तृत करने का नहीं है? क्या अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने का कोई बेहतर तरीका है? और इसका मुद्रास्फीति पर क्या असर होगा? आरबीआई ने कुछ हफ्तों पहले कर दरों में कटौती ना करने का कारण बताते हुए कहा कि भारत में उपभोगता मूल्य सूचकांक थोक मूल्य सूचकांक से 6% दूर है। शिलातैल कीमतों में परिवर्तन और मुद्रास्फीति के बीच संबंध जानने के लिए, चलिए हम अपने पड़ोसी श्रीलंका पर नज़र डालते हैं।
2014 तक भारत सरकार पेट्रोल और डीजल की लागत को सब्सिडी दे रही थी और इस बोझ को अवशोषित करने के लिए राजस्व के अन्य स्रोत ढूंढ रही थी।
श्रीलंका में शिलातैल कीमतों का मुद्रास्फीति पर असर
यदि एक पड़ोसी देश, जिसका जनसांख्यिकी और खर्च करने का तरीका समान है, ने शिलातैल कीमतों और मुद्रास्फीति पर अनुसंधान किया है, वह निश्चित ही अध्ययन करने के लायक है। श्रीलंका के केंद्रीय बैंक ने डब्ल्यू टी के परेरा के अध्यक्षता में एक अध्ययन को साधिकार किया जिसमें श्रीलंका में शिलातैल कीमतों का मुद्रास्फीति पर असर पता करने को कहा गया। एक अच्छी तरह से अध्ययन किया गया दस्तावेज, इसमें डीजल इंजन के भावों को दो उपभोक्ता मूल्य सूचकांकों के साथ नजर रखा गया है, कोलंबो उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीसीपीआई) एवँ श्रीलंका उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (एसएलसीपीआई) और कुछ दिलचस्प निष्कर्ष पर पहुँचे। परंतु इसके बारे में अधिक जानकारी पेश करने से पूर्व कुछ परिभाषाएं जान लें।
शिलातैल कीमत का मुद्रास्फीति पर दो तरीकों से असर होता है – सीधा प्रभाव और अप्रत्यक्ष प्रभाव। पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस, मिटटी तेल एवँ बिजली जैसे पदार्थ पर शिलातैल कीमत का सीधा प्रभाव होता है। अन्य सारे पदार्थ जैसे सब्जियां, दलहन, बीज और उपभोक्ता वस्तुओं पर शिलातैल कीमत का अप्रत्यक्ष प्रभाव होता है। यह अध्ययन के लिए 2002-2004 के बीच का समय चुना गया। 2002 के पहले, डीजल की कीमतें कड़ाई से प्रशासित थे। इसलिए 1981-2001 के कालांतर में डीजल की कीमतें काफी स्थिर थी। परंतु 2002 से सितम्बर 2004 तक वह बाजार किमतों के साथ बदलने लगी, क्योंकि डीजल की कीमतें मासिक परिवर्तन के अधीन थीं। दूसरे शब्दों में कहें तो श्रीलंकाई सरकार लागत या बचत, जो भी हो, उसे उपभोक्ताओं को हस्तांतरित कर रही थी।
परिणाम बताते हैं कि डीजल की किमतों का अप्रत्यक्ष प्रभाव सीसीपीआई और एसएलसीपीआई पर सीधे प्रभाव से कई अधिक है। अध्ययन में पाया गया कि डीजल की किमतों में 10% वृद्धि से सीसीपीआई और एसएलसीपीआई में 0,173% & 0.197 % से वृद्धि होगी। ये पदार्थों पर पड़ने वाले सीधे प्रभाव के कारण है। ये ही 10% वृद्धि का अप्रत्यक्ष असर पड़ने वाले पदार्थों की सीसीपीआई में पहले महीने में वृद्धि 1.21% से होगी। जहाँ तक एसएलसीपीआई की बात है, वहीं डीजल की कीमतों में बदलाव का अप्रत्यक्ष प्रभाव था 1.01% 2-3 महीनों के अंतराल के साथ। सीसीपीआई स्थानीय है, कोलंबो नगरी के आसपास के इलाकों सहित जब की एसएलसीपीआई देशभर की किमतों से संबंधित था। इतना बताना ही काफी है कि सीसीपीआई पर सीधा से अप्रत्यक्ष प्रभाव 1:5 है। टर्की में भी ऐसा ही एक अध्ययन किया गया जिसके निष्कर्ष भी समरूप थे।
पेट्रोल एवं डीजल की कीमतों को कम करके भारत मुद्रास्फीति पर रोक लगा सकता है
2014 तक भारत सरकार पेट्रोल और डीजल की लागत को सब्सिडी दे रही थी और इस बोझ को अवशोषित करने के लिए राजस्व के अन्य स्रोत ढूंढ रही थी। ऊपर दिए गए अध्ययन से हमें पता चलता है कि पेट्रोल और डीजल की खुदरा कीमतों में कमी सीपीआई को और अधिक प्रभावित करेगी, जिससे इसे डब्ल्यूपीआई के करीब लाया जा सकेगा और मुद्रास्फीति की समस्या को खत्म कर दिया जाएगा। एक बार सरकार अपने इरादों को स्पष्ट कर लेती है कि पंप की कीमत अंतरराष्ट्रीय कच्चे दामों का पालन करेगी, वस्तुओं की कीमतें जल्द से जल्द गिर जाएगी। अपर्याप्त वितरण और भंडारण के कारण भारत में सीपीआई उच्च है। एक बार यह स्पष्ट हो जाता है कि वही अच्छा दिन अगले दिन कम कीमत लाएगा, यह मूलभूत वस्तुओं के विक्रेताओं को कीमतों को कम करने के लिए प्रोत्साहित करेगा।
इसका प्रत्यक्ष परिणाम उपभोक्ता के हाथों में अधिक पैसा है। उपभोक्ता की बचत दर बढ़ जाएगी, जो बदले में उसी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के जमा निधि में जाएगी। एक विस्तारित अवधि के लिए कम तेल की कीमतों का स्पष्ट प्रक्षेपण अक्सर नहीं होता है और भारत को इस सुनहरे अवसर को पकड़ना चाहिए और उपभोक्ता को कम मूल्य देना चाहिए। अब समय है।
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