मुख्य न्यायाधीश जी जवाब दीजिये, न हो सके तो इस्तीफा दीजिये!
माननीय मुख्य न्यायाधीश,
उच्चतम न्यायालय
आप के नेतृत्व में पिछले 2 दिनों में आप के दो न्यायाधीशों (श्री सूर्यकान्त और श्री जमशेद पारदीवाला) के द्वारा कथित मौखिक टिप्पणी ने भारत को एक ऐसे दो राहे पर छोड़ दिया है। भारत का सम्मानित, प्रतिष्ठित और न्याय की आशा के एकमात्र प्रतीक “उच्चत्तम न्यायालय” को “अन्याय” की परिकाष्ठा बना दिया है। इसलिये मैं आप से देश की ओर से पूछता हूँ –
क्या उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को अधिकार है कि किसी भी याचक (इस संदर्भ में नूपुर शर्मा) को बिना किसी सबूतों, गवाह या जाँच पड़ताल बिना ही “अपराधी” घोषित कर के पूरे देश की जनता को विचलित कर दें?
क्या न्याय के तथाकथित प्रतीक न्यायाधीशों को अपने शक्ति प्रदर्शन से अपने आप को न्याय से ऊपर उठाने का अधिकार है?
क्या न्यायाधीश भारत के संविधान से ऊपर उठकर नागरिकों के विषय में जो चाहे टिप्पणी कर सकते हैं?
आपके मत में क्या इन न्यायधीशों ने अपने कठोर और निरर्थक शब्दों और वाक्यों का प्रयोग कर के (जिनका सम्बन्ध याचिका की प्रार्थना से बिल्कुल नहीं था) भारतियों के
“विश्वास” को “अविश्वास”
“न्याय” को “अन्याय”
“अभिलाषा” को “अभिशाप” और
“देश शांति” को “अराजकता“….
का रूप दे दिया?
क्या उदयपुर में हुये जघन्य अपराध और भरे बाजार में आतंकवादियों द्वारा की गई हत्या का सम्बन्ध याचिका की प्रार्थना से था? अगर नहीं तो न्यायाधीश को क्या अधिकार था उस घटना को याचिका से जोड़ने का? अगर हाँ तो क्या न्यायाधीश द्वारा एक मात्र नूपुर शर्मा को इस अपराध के लिये जिम्मेदार ठहराने को न्याय संगत कहा जा सकता है?
मुख्य न्यायाधीश महोदय, भारत का हर नागरिक न्यायालयों को प्रतिष्ठा और सम्मान देता है और वह न्यायाधीश से निष्ठा और न्याय की आशा करता है। आप के स्वयं के बहुत वर्ष विभिन्न स्तरों के न्यायालय में बीते हैं और इसीलिये आप मुख्य न्यायाधीश हैं। क्या आपने कभी न्याय के घर में ही अन्याय होते देखा है? क्या याचिका की प्रार्थना को दरकरार कर के एक प्रतिष्ठित वकील को न्यायाधीश द्वारा लताड़ते हुये देखा है? क्या आपने एक महिला जिसको जान से मारने तथा अन्य शारीरिक और संवेदनाशील बातों को लेकर अनगिनत धमकियाँ मिली हो को न्यायालय से निराश होकर ना केवल भेजा है बल्कि अपमानित भी किया है। यह महिला उतनी ही योग्य और प्रतिष्ठित है जितने कि आप सभी न्यायाधीश। फर्क केवल दो हैं – दोनों न्यायाधीश पुरुष और याचिकाकर्ता एक महिला एवं दोनों उच्चतम न्यायालय में पदासीन न्यायाधीश और महिला एक राजनीतिक दल (जो सत्ता में है) की एक कुशल नेता और कुछ दिन पहले तक पार्टी की प्रवक्ता भी। क्या न्यायाधीश महोदयों को याचिका के राजनीतिक दल से जुड़ाव या उनके महिला होने के कारण से इतना अधिक आपत्ति और आक्रोश था।
महोदय, प्रश्न तो बहुत हैं लेकिन शायद उत्तर पाना या देना आपके लिये या अन्य न्यायाधीशों के लिये संभव न हो। आप को कोई भी भारतवासी उत्तर देने के लिये बाध्य भी तो नहीं कर सकता है क्यों कि आप सभी “My Lord” हैं। लेकिन जन समूह के इस न्यायालय में आप से आखिरी प्रश्न हैं –
1) क्या न्यायाधीश कान्त और पारदीवाला यह सब करने और कहने के बाद उच्चतम न्यायालय में पदासीन रहकर विश्वनीय और न्यायपूर्ण हो सकते है? क्यों ना आप उन्हें समझायें कि वह स्वयं अपने स्थान को खाली कर दें।
2) अगर वह स्वेच्छा से पदासीन रहना चाहते हैं तो क्यों ना उनके लिये impeachment की प्रक्रिया प्रारम्भ की जाये।
3) क्या आप इन न्यायाधीशों की मौखिक और अनावश्यक टिप्पणी को निरस्त करते हुये आदेश दे सकते हैं कि भविष्य में किसी भी न्यायालय द्वारा इस तरह की टिप्पणी का प्रयोग ना किया जाये।
4) क्या आप नूपुर शर्मा की याचिका पर फिर से एक बार विचार कर सकते हैं। और अगर उनकी सभी एफआईआर को एक ही न्यायालय में स्थानंतरित करने से उनकी सुरक्षा हो सकती है तो उसकी अनुमति दी जाये।
5) क्या इतना सब होने के बाद आपके नेतृत्व में उच्चतम न्यायालय की प्रतिष्ठा, निष्पक्षता, निष्ठा, सम्मान, विश्वास आदि को पहले जैसा करना सम्भव है।
महोदय आप सम्मानीय है और हमारे प्रश्नों पर विचार और चितन करें। अगर आप ऊपर लिखे कदम नहीं उठा सकते या नहीं उठाना चाहते तो मेरी आप से विनम आशा है कि आप स्वयं अपने पद से इस्तीफा दे दें। भारत का सम्मान और भारत के न्यायालय का राजनीति से हर प्रकार से अलग होना किसी भी न्यायाधीश से ज्यादा होता है।
न्यायालय “अन्याय” और “अविश्वास” का प्रतीक बन कर भारत को अराजकता की ओर ले जा सकता है। आज विश्व गुरु बन ने वाले भारत को सहनशीलता, शांति, विकास और जन कल्याण की आवश्यकता है और उसके लिये न्याय संगत और निष्पक्ष तथा निपुण न्यायाधीश की!
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दोनो न्यायाधीशों (श्री सूर्यकान्त और श्री जमशेद पारदीवाला) के द्वारा की गयी मौखिक टिप्पणी अत्यंत निंदनीय एवम् ग़ैर ज़िम्मेदाराना है। दोनो न्यायाधीशों को तत्काल बर्खास्त किया जाना चाहिये एवं भविष्य में हमेशा के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाना चाहिये।