आर्कबिशप के कार्यालय ने प्रभाव को दूर करने के कमजोर प्रयास किए, दावा करते हुए कि अपील में किसी राजनीतिक दल या नेता का उल्लेख नहीं किया गया।
देश में पिछले कुछ दिनों में हुए दिलचस्प घटनाक्रम ने चर्च को एक तीखी स्थिति में डाल दिया है। दिल्ली के प्रधान पादरी अनिल कुटो ने पत्र द्वारा सारे पल्ली पादरियों को सालभर के लिए प्रार्थना अभियान चलाने को कहा है ताकि भारत को “अशांत राजनीतिक माहौल”, जो लोकतंत्र एवँ धर्मनिरपेक्षता के लिए खतरा है, से निकाला जा सके। भाजपा के विरोधी प्रकोष्ठ ने इस पत्र को मोदी सरकार पर अभियोग बताया और कहा कि ये उनकी धारणा, कि धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला हो रहा है, को अनुमोदित करता है। मुख्य पादरी के कार्यालय ने इस धारणा को दूर करने की असफल कोशिश की ये कहते हुए कि पत्र में किसी राजनीतिक दल या नेता का जिक्र नहीं किया गया और यह केवल देश के हित में था।
परंतु वेटिकन न्यूज द्वारा असलियत को सामने लाया गया। एक लेख में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि निशाना “हिंदू समर्थक मोदी सरकार” है। भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और कुछ अन्य तथाकथित हिंदू समर्थक संगठनों ने बयान की निंदा करते हुए कहा कि इस बयान ने देश के चुने हुए प्रधानमंत्री के खिलाफ चर्च के पक्षपात पूर्ण रवैये का खुलासा किया और चर्च राजनीति करने का प्रयास कर रहा है जो उसे नहीं करना चाहिए। अब चर्च को मुख्य पादरी के पत्र को, उसके समर्थकों के निष्कर्ष निकालने के विपरीत, निरूपद्रवी बताना कठिन हो गया।
इस साल के शुरुआत में नागालैंड के विधानसभा चुनाव के पहले, बैपटिस्ट चर्च के विश्वासियों से कहा कि वे भाजपा को मतदान ना करें
मुख्य पादरी कुटो ने कुछ टीवी चैनलों पर बताया कि उनके पत्र की दुर्व्याख्या की जा रही है परंतु उन्होंने उन लोगों के खिलाफ एक शब्द नहीं कहा जो इस पत्र का सहारा लेकर मोदी सरकार को ईसाई विरोधी बता रहे थे। यह स्पष्ट हो गया कि चर्च को इस स्वयं के बनाए हुए झमेले से निकलने के लिए अधिक प्रयास करना होगा। भारत में चर्च के वरिष्ठ अधिकारियों , जिसमें एक कार्डिनल भी शामिल थे, ने टीवी चैनल पर आकर ये बयान दिया : चर्च को प्रधानमंत्री या उनके सरकार के खिलाफ कोई शिकायत नहीं थी; देश के विकास के लिए चर्च सरकार के साथ मिलकर काम कर रहे हैं; उन्हें जब भी प्रधानमंत्री या उनके कैबिनेट के अन्य मंत्रियों को मिलने का मौका मिला तब उन्हें पूर्ण आतिथ्य दिया गया; भारतीय ईसाई डर में नहीं रहते हैं (अपितु थोडी उत्कंठा है जो भारत के लिए विशिष्ट नहीं; दुनियाभर में ऐसी चुनौती है); यदि मुख्य पादरी के पत्र से कोई गलत धारणा उत्पन हुई है तो चर्च इसे सही करने के लिए बयान जारी करने का प्रयास करेगी ; वेटिकन न्यूज वेटिकन का आधिकारिक मुखपत्र नहीं है और इसलिए उसके लेख को इस विषय पर वेटिकन की स्थिति नहीं समझना चाहिए।
यदि ये ही भारत में चर्च की दृष्टि थी तो मुख्य पादरी कुटो क्या चाहते थे? उन्होंने ना ही ये स्पष्टीकरण दिया कि “अशांत राजनीतिक माहौल” का मतलब क्या है और ना ही ये बताया कि लोकतंत्र एवँ धर्मनिरपेक्षता के लिए खतरा किससे है! यदि वह अंतःकरण के लिए अपील थी तो दिल्ली चर्च का अंतःकरण क्या कर रहा था जब 1984 में 3000 सिखों की हत्या की गई? दिल्ली के बाहर के चर्च भी चुप्पी साधे हुए थे। कुछ दिनों पहले ही पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव के पहले बड़े पैमाने पर हिंसा और लोगों की मृत्यु हुई। सत्ता में बैठी हुई ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने लोकतंत्र एवँ धर्मनिरपेक्षता का मजाक बना दिया परंतु चर्च ने कुछ नहीं कहा। तब प्रार्थना की आवश्यकता नहीं थी?
ये पहली बार नहीं है जब चर्च ने राजनीतिक अपील की है – प्रत्यक्ष या सूक्ष्म रूप से। इस साल के शुरुआत में नागालैंड के विधानसभा चुनाव के पहले, बैपटिस्ट चर्च के विश्वासियों से कहा कि वे भाजपा को मतदान ना करें क्योंकि भाजपा-आरएसएस खतरा बन चुके हैं। नागालैंड बैपटिस्ट चर्च कौंसिल ने कहा कि विश्वासियों को उन ताकतों के सामने नहीं झुकना चाहिए जो जीसस क्राइस्ट के खिलाफ थे। भाजपा के राज्य विभाग ने इस कदम को उनके लिए खतरे के रूप में देखा।
गोवा के कैथलिक चर्च ने भी उन मुद्दों पर हाथ आजमाया जो उनके कार्य क्षेत्र के बाहर थे और राजनीतिक प्रकृति के थे।
इसी समय में, मेघालय के कैथलिक चर्च ने, जहाँ विधानसभा चुनाव होनेवाले थे, घारो पहाड़ी क्षेत्र में देश में ईसाई अल्पसंख्यक पर हो रहे हमलों के खिलाफ एक दिन का विरोध प्रदर्शन किया। एक कैथलिक पादरी ने कहा, “जब एक ईसाई बाधित होता है तब हम सब बाधित होते हैं”। दूसरे पादरी ने कहा कि यदि भाजपा सत्ता में आ गयी तो वह ऐसे नियम और विनियम लेकर आएगी जिससे ईसाईयों को शिकार बनाया जाएगा। कांग्रेस ने इन बयानों का इस्तेमाल किया और चुनावी लाभ उठाया। ये बात और है कि नागालैंड और मेघालय में सांप्रदायिक अभियान के बावजूद कांग्रेस सरकार बनाने में असमर्थ रही।
गोवा के कैथलिक चर्च ने भी उन मुद्दों पर हाथ आजमाया जो उनके कार्य क्षेत्र के बाहर थे और राजनीतिक प्रकृति के थे। 1980 की दूसरी पारी में हुए अधिकारिक भाषा आंदोलन, जो हिंसक हो गया था, के दौरान चर्च ने उनका समर्थन किया जो केवल कोंकणी को अधिकारिक भाषा बनाना चाहते थे और मराठी का विरोध किया – जो वहां पर व्यापक रूप से बोली जाने वाली दूसरी भाषा थी। कई वर्षो बाद चर्च ने सरकारी या सरकारी सहायता प्राप्त पाठशालाओं में निर्देश के माध्यम आंदोलन में भाग लिया। चर्च ने कोंकण रेल्वे योजना का विरोध किया और उन लोगों का समर्थन किया जो यह दावा कर रहे थे कि इससे राज्य के तटीय पारिस्थितिकी तंत्र को क्षति पहुंचेगी। आज उन्हीं कैथलिक पादरियों में से कई गोवा और मुंबई के बीच यात्रा करने के लिए इसी कोंकण रेल्वे का उपयोग कर रहे हैं!!!
जब भी भारतीय चर्च का कोई अधिकारी लोकतंत्र को खतरे की बात करेंगे तब उन्हें गोडस बैंकर्स नामक पुस्तक की बातें याद करनी चाहिए। इसमें बताया गया है कि कैसे वेटिकन बैंक ने 1930 के दशक से 1940 के दशक के मध्य तक यूरोप में नाजी और फासीवादी ताकतों और नेताओं का परोक्ष रूप से समर्थन किया। यह पुस्तक किसी भाजपा या आरएसएस विचारक ने नहीं लिखी बल्कि इसके लेखक इतिहास के लिए पुलित्जर पुरस्कार के फाइनलिस्ट गेराल्ड पोसनर हैं और ये 2015 में प्रकाशित हुई थी। चर्च निश्चित ही उस समय से काफी आगे निकल चुके हैं परंतु दूसरों को भाषण देने से पहले उन्हें अपने इतिहास का स्मरण करना चाहिए।
Note:
1. Text in Blue points to additional data on the topic.
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