जातिवाद, एक हिंदू-भययुक्त शब्द

जातिवाद भारतीय या किसी भी तरह से हिंदू वैदिक संस्कृति से जुड़ा नहीं है

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जातिवाद, एक हिंदू-भययुक्त शब्द
जातिवाद, एक हिंदू-भययुक्त शब्द

किसी भी भारतीय के खिलाफ जातिवाद का कोई भी संदर्भ एक जातिवादी गाली है जिसे आज की अदालती व्यवस्था में मानवाधिकार उल्लंघन के रूप में प्रश्न उठाया जा सकता है।

कोई भी पश्चिमी व्यक्ति पहले एक भारतीय से पूछेगा, तो आपके पास एक जाति व्यवस्था है? यह भारतीय लोगों के खिलाफ इस्तेमाल किया जाने वाला सबसे अधिक हिंदू-भययुक्त और अपमानजनक शब्द है। आजकल, यदि किसी भी भारतीय से वह प्रश्न पूछा जाता है, तो वह व्यक्ति नस्लीय भेदभाव के लिए अदालत जा सकता है। इस्लामी राष्ट्रों के कारण और ईसाई मिशनरियों के कारण भी हिंदू भय आज अपने चरम पर पहुंच गया है। संयुक्त राज्य अमेरिका में हिंदू मंदिरों पर नियमित रूप से हमला किया जाता है, सिखों से उनकी पगड़ी के लिए पूछताछ की जाती है और अन्य हिंदुओं का आमतौर पर जाति व्यवस्था या पारिवारिक व्यवस्था विवाह पर मज़ाक उड़ाया जाता है। ये सभी नस्लवादी हमले हैं और भारतीयों को यूरोप, एशिया, अफ्रीका और यहां तक कि संयुक्त राज्य अमेरिका में अपने समान अधिकारों की मांग करना पड़ता है। जाति व्यवस्था पर हमला होने पर अधिकांश हिन्दू मौन हो जाते हैं और रक्षात्मक हो जाते हैं। जिसे रोकने की जरूरत है। क्योंकि कोई भी हिंदू धर्मग्रन्थ जातिवाद का समर्थन नहीं करता है। जाति 1600 ईसा पूर्व में पुर्तगाली ईसाइयों द्वारा भारतीयों को रक्षात्मक करने और मूल रूप से भारत के लाखों निवासियों की आस्था पर सवाल उठाने के लिए आविष्कार किया गया एक अपमानजनक शब्द है।

“हिंदू यूरोप के देशों के लिए नीच नहीं थे और वह आश्वस्त था कि अगर भारत और इंग्लैंड के बीच व्यापार के लिए सभ्यता एक विषय बनी तो इंग्लैंड को अधिक लाभ होगा।”

भारत की सामाजिक संरचना में चार श्रेणियां या वर्ण थे। जाति(कास्ट) भारतीय शब्द नहीं है, बल्कि एक पुर्तगाली ईसाई शब्द है जो अपमानजनक रूप से भारत के शिक्षकों या ब्राह्मण पर हमला करने के लिए इस्तेमाल किया गया था। क्योंकि वे जिस तरह से भारतीयों का विश्वास हासिल कर सकते थे, वह था शिक्षकों या ब्राह्मणों पर उनके मौजूदा विश्वास को  तोड़ना। ईसाई धर्म ने धोखाधड़ी के माध्यम से मूल संस्कृतियों को बदल दिया – बौद्धिक, सामाजिक और ऐतिहासिक। आप रोम और वेटिकन के संग्रहालयों में जाकर उनके कपटपूर्ण स्वभाव के बारे में अधिक समझ सकते हैं। उनका इतिहास छल से भरा है। रोमन लोगों से रोम पर कब्जा करने की कहानी अपने आप में इस तथ्य का प्रमाण है। फ्रांसिस ज़ेवियर ने सोसाइटी ऑफ जीसस को एक पत्र लिखा, “यदि यह ब्राह्मण नहीं होते, तो यह मूर्तिपूजक/काफिर/गैर-ईसाई हमारा धर्म अपना लेते” फ्रांसिस ज़ेवियर ने अपने निजी पत्र में सभी भारतीय को मूर्तिपूजक (हीथेन) कहा। मैकाले और अन्य सभी ईसाई मिशनरियों का पूरा उद्देश्य भोले हिन्दू बच्चों को ब्राह्मणों के खिलाफ भड़काना था। ब्राह्मणवादी वर्ग के विनाश के माध्यम से भारत की वैदिक संस्कृति को नष्ट करने के लिए एक अपमानजनक शब्द – जाति का आविष्कार करना मुख्य उद्देश्य था। क्योंकि जब तक ब्राह्मणों को नष्ट नहीं किया जाता, तब तक हिंदू ईसाई नहीं बनेंगे। यह धोखाधड़ी अभी भी नेहरू राजवंश और अन्य शैक्षिक प्लेटफार्मों जैसे एएमयू, जेएनयू के माध्यम से जारी है, जिनकी उपज इसीतरह के काम के लिए की गई थी।

वह भारत क्या है जिसे पूरी दुनिया खोजना चाहती थी? क्या पूरी दुनिया को सिर्फ भारत से मसाले और व्यापार में दिलचस्पी थी? क्या प्राचीन भारत के बारे में सीखने के लिए अब के पाठयक्रम में जो सिखाया जाता है उससे बहुत ज्यादा कुछ था? भारत गाँवों में बसता है और महाभारत के समय से आज तक यह सच है। महाभारत के समय में भी, गाँवों के इर्दगिर्द युधिष्ठिर का शासन था। यही कारण है कि हम कितने वैज्ञानिक हैं। किसी भी समय किसी के द्वारा किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं किया गया। उन गांवों के कुशल प्रशासन प्रदान करने के लिए गाँव से पाँच बहादुर, कुशल और बुद्धिमान लोगों की एक प्रणाली को चुना गया था। इस प्रकार पंचायत प्रणाली अनादि काल से विद्यमान है, और इसने भरत को विश्व का सबसे विश्वसनीय राष्ट्र बना दिया। दुनिया भर में, प्राचीन यूनानियों, चीनी, फारसियों, पश्चिमी यूरोपीय और सुदूर पूर्व के अन्य लोगों ने भारत का सम्मान उसकी बुद्धिमत्ता, न्याय और सच्चाई के लिए किया। प्राचीन भारत का सबसे बड़ा धन उसके लोग थे। वे लोग किस लिए जाने जाते थे? व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर सत्य और न्याय के लिए। यदि भारत सत्य और न्याय के लिए जाना जाता था, तो क्या वे लोग अपने ही लोगों के साथ भेदभाव करेंगे? इतिहास भारतीयों के खिलाफ किसी भी ईसाई मिशनरी आरोपों का समर्थन नहीं करता है। यहां तक कि मुगलों ने कुशल शासन के लिए अपने लोगों से अधिक हिंदुओं पर भरोसा किया। भले ही मुगलों ने उन पर कभी विश्वास नहीं किया क्योंकि मुगल हमेशा से यह जानते हुए डरते भी थे कि उन्होंने अफगानिस्तान और आज के पाकिस्तान में हिंदुओं के खिलाफ कितनी हिंसा की है।

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प्रचुर मात्रा में सबूत हैं जहां ब्रिटेन से ईसाई उपनिवेशवादियों और अरब और मध्य एशिया से मुस्लिम लुटेरों ने, भारतीयों की एक गुणवत्ता के बारे में स्वीकार किया और वह सत्य और न्याय था। मैक्स मुलर ने अपनी पुस्तक ‘भारत : हम इससे क्या सीख सकते हैं (India : what it can teach us), “उनका पूरा साहित्य एक छोर से दूसरे छोर तक प्रेम और सत्य के प्रति श्रद्धा के भावों से व्याप्त है।” यह मैक्स मुलर का अवलोकन था, जिसका एकमात्र उद्देश्य वैदिक धर्मग्रंथों का अनुवाद करना था, ताकि भारत के सार को नष्ट करने के लिए उनके ईसाई आदर्शों को उन में मिलाया जा सके। 1836 में, मैकाले ने कहा, “यह मेरा विश्वास है कि अगर हमारी शिक्षा की योजनाओं का पालन किया जाता है, तो बंगाल में तीस वर्षों में सम्मानजनक वर्गों के बीच एक भी मूर्तिपूजक नहीं होगा। हिंदुओं का मत-रोपण (ब्रेनवॉश) पूरी तरह से पश्चिमी शिक्षा प्रणाली द्वारा इसतरह किया गया है, कि वे इस बारे में स्पष्ट रूप से सोचने में भी सक्षम नहीं हैं कि उनके साथ क्या हुआ। और यह उनके ब्रिटिश आकाओं की गजब की चाल (मास्टरस्ट्रोक) थी। उन्होंने एक ऐसी सभ्यता को नष्ट करने का प्रयास किया जो उनकी सोच से हजारों वर्षों पुरानी थी। और वे आंशिक रूप से सफल रहे!

मद्रास खण्ड (प्रेसीडेंसी) के गवर्नर थॉमस मुनरो ने सार्वजनिक रूप से टिप्पणी की थी, “हिंदू यूरोप के देशों के लिए नीच नहीं थे और वह आश्वस्त था कि अगर भारत और इंग्लैंड के बीच व्यापार के लिए सभ्यता एक विषय बनी तो इंग्लैंड को अधिक लाभ होगा।” सभी भारतीयों के लिए उनके (मिशनरियों) खेल को समझने और ग्रह पर सबसे पुरानी जीवित सभ्यता को नष्ट करने के उनके मिशन में सफल नहीं होने देने का समय है।

संक्षेप में, जातिवाद भारतीय या किसी भी तरह से हिंदू वैदिक संस्कृति से जुड़ा नहीं है। किसी भी भारतीय के खिलाफ जातिवाद का कोई भी संदर्भ एक जातिवादी गाली है जिसे आज की अदालती व्यवस्था में मानवाधिकार उल्लंघन के रूप में प्रश्न उठाया जा सकता है। इस्लामी राष्ट्रों और ईसाई मिशनरियों के हिंदू-भय निराधार हैं और नस्लीय रूप से भारतीयों को रक्षात्मक बनाने के लिए प्रेरित करते हैं, क्योंकि उनके पास खुद छिपाने के लिए बहुत कुछ अप्रिय है।

ध्यान दें:
1. यहां व्यक्त विचार लेखक के हैं और पी गुरुस के विचारों का जरूरी प्रतिनिधित्व या प्रतिबिंबित नहीं करते हैं।

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