दूसरा भाग : जब हिंदुत्व भय की भावना से कानून कमजोर हो जाता है

एक चिकित्सक के कार्यकलाप एक वक्त पर सिर्फ एक व्यक्ति तक सीमित होते हैं। परंतु न्यायाधीश के फैसले न केवल मुकदमे से जुड़े लोगों को बल्कि लगभग पूरे समुदाय और आनेवाली पीढ़ियों पर भी लागू होते हैं।

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पिछला भाग आप यहाँ पढ़ सकते है . यह भाग 2 है

अधिनियम के अनुभाग 25, शीर्षक “हत्यारा निरर्हित”। किसी व्यक्ति के ऊपर संपत्ति के मालिक की हत्या का आरोप लगने पर उसे संपत्ति के अधिकार से निरर्हित कर दिया जाता है। यदि उस पर हत्या करने या हत्या करने में सहायता करने का आरोप लगा है तो यह अनुभाग लागू होता है। क्या  हत्या केवल शारीरिक रूप से की जाती है? यदि  नरसंहार सांस्कृतिक हो सकता है तो क्या किसी व्यक्ति द्वारा अपने पूर्वजों की संस्कृति व मान्यताएं छोड़ देना भी नरसंहार नहीं माना जाना चाहिए? क्या पूर्वजों की संस्कृति को ठुकराकर वह व्यक्ति उनकी प्रतीकात्मक हत्या नहीं कर रहा? क्या इसका अर्थ यह नहीं कि वह अपने पूर्वजों को मूर्ख समझता है, क्योंकि उन्होंने वह मान्यताएं चुनी जिन्हें वह अपनी मान्यताओं से बुरा  समझता है! क्या यह उन मान्यताओं को अप्रासंगिक बताकर उन्हें ठुकराना नहीं होगा? उन्हें क्या अधिकार रह जाता है संपत्ति का हिस्से पर जब वह उन्हीं पूर्वजों की पहचान परिभाषित करनेवाले विचारों को नकार  रहे हैं?

माननीय गुजरात उच्च न्यायालय ने यह दावा किया कि अधिनियम केवल उस व्यक्ति के धार्मिक पहचान के बारे में बताता है जिसकी संपत्ति का बटवारा हो रहा है ना कि उसके वारिसों की। क्या यह दावा सही होगा जब अधिनियम में यह स्पष्ट किया है कि किसको और किस श्रेणी के वारिसों को संपत्ति पर अधिकार है। वारिसों की श्रेणी को भी बड़े स्पष्ट रूप से बताया गया है। फिर माननीय न्यायालय को धर्म क्या है, लोग धर्म परिवर्तन क्यों करते हैं या आध्यात्मिकता के बारे में प्रश्न उठाने की आवश्यकता ही कहाँ थी? ऐसे दार्शनिक विषयों पे न्यायालय की टिप्पणी ना केवल अनावश्यक है बल्कि इससे सिर्फ विवाद ही पैदा होगा कि लोगों के लिए कौनसा धर्म उचित है इत्यादी! विवाद के विषय बहुत सारे हैं। एक अच्छे लोकतंत्र में ऐसी चर्चाएं की जा सकती हैं, परंतु क्या न्यायालय ऐसी चर्चाओं के लिए उचित स्थान है खासकर तब जब मुकदमा व्यक्तिगत कानूनों को लेकर है?

फिर न्यायपालिका की प्रक्रियाओं पर नुकसान भरपाई एवं सुधार के नियम क्यों नहीं लागू होते जैसे अन्य क्षेत्रों में होते हैं। क्या केवल अपील ही काफी है?

लापरवाही एवं अक्षमता

जब कई सारे क्षेत्रों में, खास तौर पर चिकित्सा व्यवस्था, नागरिक व अपराधिक लापरवाही के लिए नियम एवं मापदंड होते हैं तो न्यायपालिका में क्यों नहीं होने चाहिए?

एक चिकित्सक के कार्यकलाप एक वक्त पर सिर्फ एक व्यक्ति तक सीमित होते हैं। परंतु न्यायाधीश के फैसले न केवल मुकदमे से जुड़े लोगों को बल्कि लगभग पूरे समुदाय और आनेवाली पीढ़ियों पर भी लागू होते हैं।

फिर न्यायपालिका की प्रक्रियाओं पर नुकसान भरपाई एवं सुधार के नियम क्यों नहीं लागू होते जैसे अन्य क्षेत्रों में होते हैं। क्या केवल अपील ही काफी है? क्या न्यायाधीश अपने ही न्यायाधीश भाइयों के कार्य प्रणाली पर निर्णय कर पाएंगे? क्या कानून इंसान के शरीर से भी ज्यादा जटिल है? क्या न्याय व्यवस्था एवं न्यायपालिका न्याय से भी ऊपर है? अगर हाँ तो क्यों और कैसे? क्या इस युग में ऐसे तर्क सही और स्वीकार्य हैं?

क्या लोकतंत्र खतरे में है? जी बिल्कुल मी लार्ड… क्या इसका कारण आरोपित न्यायिक तख्तापलट है? क्या इसका कारण न्यायव्यवस्था में बढ़ता हिंदुत्व भय है?

संदर्भ:

Balchand Jairamdas Lalwant vs Nazneen Khalid Qureshi. 6 March, 2018 Live Law. Bombay High Court.

Nayanaben Firozkhan Pathan vs Patel Shantaben Bhikhabhai & 4 othrs. 30 August, 2017 Live Law. Gujarat High Court.

Sri Krishna Singh Vs. Mathura Ahir & Ors. 1979 AdvocateKhoj. Supreme Court of India.

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