हम नई व्यवस्थाओं और परम्पराओं को अपनाने के लिए सहर्ष तैयार हैं परंतु उन नई व्यवस्थाओं की इमारत हमारी पुरानी संस्कृति और परम्पराओं की नींव पर खड़ी होनी चाहिए
एक ऐसी घटना घटी मानो बच्चों ने माँ को पिछड़ा हुआ कहकर वृद्धाश्रम में डाल दिया हो और पड़ोस की महिला को अपनी माँ मानने लगे हों। माँ कभी पिछड़ी हुई नहीं होती, वो हो नहीं सकती….सहस्त्र वर्षों की अति समृद्ध संस्कृतिनुमा साड़ी लपेटे, पैरों में बंधे घुंगरू सामवेद का संगीत, परिवार पर कोई आफत आये तो आयुर्वेद से लेकर यजुर्वेद तक का ज्ञान लगाकर आफत को कैसे पस्त करना है माँ जानती है!
मैं किसी भी भाषा के बहिष्कार के पक्ष में नहीं हूँ परन्तु आज इस समाज में इतनी बदलाव की अभिलाषा तो रखता हूँ कि किसी की योग्यता का आंकलन करने का नजरिया जो इस समाज ने अपनाया हुआ है वह ठीक नहीं है
आज संस्कृत के बारे में कोई बात नहीं करना चाहता, क्यों भई? क्योंकि वो तो वैसे भी बहुत वृद्ध हो चुकी….वो बात अलग है कि एक समय था जब आज के मॉर्डन बच्चे उसकी उंगली थामकर जमाने से कदम ताल करना सीख रहे थे! आज भी जब इन मॉर्डन बच्चों की अल्ट्रा मॉर्डन औलादों को राह नहीं मिलती तो नानी माँ के नुस्खे(वेद, पुराण) खोल कर बैठते हैं….उपाय मिलते ही खुश होते हैं और काम निकलते ही भाग भी जाते हैं!
हमारे अपने देश में हिंदी की स्थिति ऐसी लगती है मानो सवा सौ करोड़ नालायक बच्चे अपनी एक माँ सम्मान देने में असमर्थ हैं और उसे वृद्धाश्रम छोड़ आये हैं….पूरी तरह तो नहीं भूले, कभी-कभी पेंशन आने के समय जाते हैं हाल पूछने….आज वही दिन है!
मैं किसी भी भाषा के बहिष्कार के पक्ष में नहीं हूँ परन्तु आज इस समाज में इतनी बदलाव की अभिलाषा तो रखता हूँ कि किसी की योग्यता का आंकलन करने का नजरिया जो इस समाज ने अपनाया हुआ है वह ठीक नहीं है… हिंदी भाषी को गवाँर की संज्ञा दी जाती है… और वहीं अंग्रेजी बोलने वालों को सुशिक्षित और उच्च स्तर का माना जाता है,
एक कहावत भी प्रचलित हुई थी कुछ समय पहले “हिंदी हो गयी” और इस कहावत का अर्थ था “अपमान होना” या “खिल्ली उड़ना”, इससे ज्यादा अपमानित कोई भाषा शायद कभी हो नहीं सकती…यूँ तो भाषा स्वयं में इतनी महान होती है कि आप उसका अपमान नहीं कर सकते परन्तु जिस भाषा ने हमें अपनों से जोड़े रखा सदियों तक, उसी भाषा को यदि हम भूल जाएंगे तो इतना याद रखें दुनिया की कोई भाषा आपको उस तरह से न तो पाल पायेगी और न ही पोषित कर पायेगी।
मैं हिंदी भाषी हूँ और मुझे गर्व है इस बात पर…हम नई व्यवस्थाओं और परम्पराओं को अपनाने के लिए सहर्ष तैयार हैं परंतु उन नई व्यवस्थाओं की इमारत हमारी पुरानी संस्कृति और परम्पराओं की नींव पर खड़ी होनी चाहिए….
ध्यान दें:
1. यहां व्यक्त विचार लेखक के हैं और पी गुरुस के विचारों का जरूरी प्रतिनिधित्व या प्रतिबिंबित नहीं करते हैं।
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