ज्ञानवापी-मां शृंगार गौरी मामले का फैसला 12 सितंबर को

औरंगजेब ने यदि ज्ञानवापी की संपत्ति का वक्फ किया था तो वह डीड लाकर दिखाई जाए, लेकिन मसाजिद कमेटी नहीं दिखा पाई।

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ज्ञानवापी-मां शृंगार गौरी मामले का फैसला 12 सितंबर को
ज्ञानवापी-मां शृंगार गौरी मामले का फैसला 12 सितंबर को

ज्ञानवापी को मस्जिद बताने वाले फर्जी दावे कब तक टिकेंगे!

वाराणसी के ज्ञानवापी-मां शृंगार गौरी केस की सुनवाई अब मुगल तानाशाह औरंगजेब के इर्द-गिर्द केंद्रित हो गई है। अंजुमन इंतेजामिया मसाजिद कमेटी का कहना है कि वर्ष 1669 में तानाशाह औरंगजेब की सत्ता थी। इस तरह से उस समय की जो भी संपत्ति थी, वह बादशाह औरंगजेब की थी। तानाशाह औरंगजेब ने ज्ञानवापी की संपत्ति दान की तो वहां मस्जिद बनी।

वहीं, वादिनी महिलाओं का कहना है कि ज्ञानवापी की संपत्ति को वक्फ की संपत्ति कहना एक बहुत बड़ी धोखाधड़ी है। अगर औरंगजेब ने ज्ञानवापी की संपत्ति दान की थी तो वह डीड कोर्ट में पेश की जाए। फिलहाल, वाराणसी के जिला जज की कोर्ट में आज मुस्लिम पक्ष और हिंदू पक्ष की बहस पूरी हो गई है। अब 12 सितंबर को अदालत फैसला सुनाएगी कि मां शृंगार केस सुनवाई योग्य है या नहीं है।

अंजुमन इंतेजामिया मसाजिद कमेटी ने ज्ञानवापी की जमीन औरंगजेब की बताई है। इसे लेकर अखिल भारतीय संत समिति के महासचिव स्वामी जितेंद्रानंद सरस्वती ने नाराजगी जताई है। स्वामी जितेंद्रानंद ने कहा, “ऐसे लगता है कि जैसे उनके बाप स्वर्ग से जमीन लेकर आए थे।

अगर वह ऐसे ही तर्क देंगे कि शासकों और सत्ता की ही जमीन होती है तो फिर हम लोग मौजूदा समय की सरकार पर दबाव बनाते हैं। फिर तो 3000 मस्जिदें जो मंदिरों को तोड़ कर बनाई गई हैं, उनका सरकार द्वारा अधिग्रहण कर लिया जाना चाहिए। मुस्लिमों के तर्क के अनुसार अधिग्रहण सही भी रहेगा। इसलिए, मुसलमान ऐसे कुतर्कों से बचेंगे तो अच्छा रहेगा। अन्यथा लंबे समय तक के लिए अंजाम भुगतने को उनको भी तैयार रहना होगा।”

मसाजिद कमेटी की जवाबी बहस 22 अगस्त से लगातार जारी है। बहस में एडवोकेट शमीम अहमद, रईस अहमद, मिराजुद्दीन सिद्दीकी, मुमताज अहमद और एजाज अहमद ने कहा कि वर्ष 1936 में वक्फ बोर्ड का गठन हुआ था। वर्ष 1944 के गजट में यह बात सामने आई थी कि ज्ञानवापी का नाम शाही मस्जिद आलमगीर है।

संपत्ति आलमगीर यानी तानाशाह औरंगजेब की बताई गई थी। वक्फ करने वाले के तौर पर भी तानाशाह आलमगीर का नाम दर्ज था। इस तरह से तानाशाह औरंगजेब द्वारा 1400 साल पुराने शरई कानून के तहत वक्फ की गई (दान दी गई) संपत्ति पर वर्ष 1669 में मस्जिद बनी और तब से लेकर आज तक वहां नमाज पढ़ी जा रही है।

इसके अलावा, 1883-84 में अंग्रेजों के शासनकाल में जब बंदोबस्त लागू हुआ तो सर्वे हुआ और आराजी नंबर बनाया गया। आराजी नंबर 9130 में उस समय भी दिखाया गया था कि वहां मस्जिद है, कब्र है, कब्रिस्तान है, मजार है, कुआं है। पुराने मुकदमों में भी यह डिसाइड हो चुका है कि ज्ञानवापी वक्फ की प्रॉपर्टी है।

इसलिए मां शृंगार गौरी का मुकदमा सिविल कोर्ट में सुनवाई योग्य नहीं है। सरकार भी तो इसे वक्फ प्रॉपर्टी मानती है, इसी वजह से काशी विश्वनाथ एक्ट में मस्जिद को नहीं लिया गया। वर्ष 2021 में मस्जिद और मंदिर प्रबंधन के बीच जमीन की अदला-बदली हुई वह भी वक्फ प्रॉपर्टी मान कर ही की गई। वह संपत्ति अल्लाह को मानने वालों यानी मुस्लिमों की थी, है और रहेगी।

हिंदू पक्ष के एडवोकेट विष्णु शंकर जैन का कहना है कि मुस्लिम पक्ष जवाबी बहस में अपनी ही दलीलों में फंस चुका है। उन्होंने कोर्ट में कागजात पेश कर बताया है कि ज्ञानवापी की संपत्ति वक्फ नंबर 100 के तौर पर दर्ज है, यह एक बहुत बड़ा फ्रॉड है। उन्होंने ज्ञानवापी से लगभग दो किलोमीटर दूर स्थित आलमगीर मस्जिद के कागजात पेश किए हैं।

वह मस्जिद बिंदु माधव मंदिर को तोड़ कर बनाई गई थी। सभी जानते हैं कि ज्ञानवापी का नाम आलमगीर मस्जिद नहीं है। अब वह ज्ञानवापी को आलमगीर मस्जिद बता रहे हैं। औरंगजेब ने यदि ज्ञानवापी की संपत्ति का वक्फ किया था तो वह डीड लाकर दिखाई जाए, लेकिन मसाजिद कमेटी नहीं दिखा पाई।

मिनिस्ट्री ऑफ माइनॉरिटी अफेयर्स की वेबसाइट में भी कहीं यह उल्लेख नहीं है कि ज्ञानवापी वक्फ की प्रॉपर्टी है। मुस्लिम पक्ष की कहानी पूरी तरह से फर्जी है और उनकी जवाबी बहस पूरी होने के बाद हम प्रति उत्तर दाखिल करेंगे तो दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा।

[आईएएनएस इनपुट के साथ]

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